सुंदरकांड पाठ हिंदी अर्थ सहित | Sunderkand PDF Free Download
Sunderkand PDF Free Download, यहां हमने आपको रामायण के सुंदरकांड पाठ की चौपाई और श्लोक हिंदी अर्थ सहित साझा किए हैं जिन्हें आप PDF में डाउनलोड भी कर सकते हैं।
सुंदरकांड रामायण में लिखा गया एक पवित्र ग्रंथ है, जिसमें भगवान हनुमान जी के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है, आपकी जानकारी के लिए बता दें रामायण का पूरा ग्रंथ सर्वप्रथम वाल्मीकि जी ने लिखा था और सुंदरकांड का जिक्र रामायण के अंदर वाल्मीकि द्वारा किया गया है।
अर्थात सुंदरकांड को वाल्मीकि जी ने लिखा है, इसे सर्वप्रथम वाल्मीकि जी ने संस्कृत भाषा में लिखा था, जिसे बाद में तुलसीदास जी ने वाल्मीकि के द्वारा लिखे गए रामायण के ग्रंथ को फिर से लिखा और उसे “रामचरितमानस” का नाम दिया था, तुलसीदास जी ने सुंदरकांड को अवधी भाषा मैं लिखा था, जिसे आज हम सभी जानते हैं।
मित्रों आपकी जानकारी के लिए बता दें, सुंदरकांड के अंदर हनुमान जी द्वारा सीता माता को लंका में जाकर खोजने की यात्रा का काफी सुंदर और मनमोहक तरीके से बखान किया गया है। अर्थात जब हनुमान जी माता सीता को ढूंढने के लिए लंका गए थे, उनकी इस यात्रा के बारे में सुंदरकांड के अंदर विस्तार पूर्वक बताया गया है।

सुंदरकांड के अंदर भगवान श्री राम के स्वभाव, उनका सुंदर स्वरूप, और उनके आदर्शों का खुलकर बखान किया गया है, साथ ही सुंदरकांड में भगवान हनुमान जी के पराक्रम और उनकी वीरता के बारे में बताया गया है।
और हमारी वेबसाइट “axialwork.com” पर हम आप सभी का स्वागत करते हैं और आपको आमंत्रित करते हैं हमारे साथ सुंदरकांड के पाठ पढ़ने के लिए, यहां हमने आपको सुंदरकांड के पाठ के श्लोक, चौपाई और दोहे संस्कृत भाषा में फोटो के साथ बताएं हैं, साथ ही संस्कृत के सभी श्लोकों और चौपाई का हिंदी अर्थ आपको यहां समझाया है।
और यदि आप भगवान बजरंगबली के भक्त हैं और प्रतिदिन सुंदरकांड के पाठ करना चाहते हैं तो आप हमारी वेबसाइट “axialwork.com” से सुंदरकांड पीडीएफ डाउनलोड (sunderkand pdf download) कर सकते हैं।
सुंदरकांड पाठ के लाभ (Sunderkand Paath Ke Labh)
- सुंदरकांड पाठ लोगों को भक्ति और शक्ति के प्रतीक भगवान हनुमान जी से जुड़ने की अनुमति देता है।
- यह आध्यात्मिकता की भावना पैदा करता है और दिव्य क्षेत्र की समझ को गहरा करने में मदद करता है।
- सुंदरकांड का पाठ भगवान राम और धार्मिकता और धर्म के उनके शाश्वत संदेश के साथ घनिष्ठ संबंध को बढ़ावा देता है।
- सुंदरकांड पाठ में शामिल होने से मन में शांति की भावना आती है।
- सुंदरकांड का पाठ नकारात्मक ऊर्जा, बुरे प्रभाव और हानिकारक ग्रहों के प्रभाव से सुरक्षा प्रदान करता है।
- सुंदरकांड के पाठ में लयबद्ध जप और पवित्र छंदों का उच्चारण शामिल है।
- सुंदरकांड के पाठ में संलग्न होकर आप अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दिव्य आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।
- सुंदरकांड के पाठ सुनकर मन शांत हो जाता है और सभी दुखों से मुक्ति प्राप्त होती है।
सुंदरकांड पाठ विधि व् नियम
अगर आप सुंदरकांड को पढ़ने जा रहे हैं तो ऐसे में आपको इसे पढ़ने की विधि और इसके नियम पता होने आवश्यक है वरना आपको उचित फल की प्राप्ति नहीं होगी, यहां आपके साथ हमने सुंदर पाठ को पढ़ने के लिए विधि और नियम क्या है इसकी पूरी जानकारी दी है जो कि निम्नलिखित हैं।
सुंदरकांड पढ़ने की विधि और तरीका
सुंदरकांड पाठ प्राप्त करें: आप हमारी वेबसाइट “axialwork.com” से Sunderkand PDF Download कर सकते हैं, आप अपनी इच्छा अनुसार संस्कृत के श्लोक में सुंदरकांड का पीडीएफ फाइल डाउनलोड कर सकते हैं या फिर आप संस्कृत श्लोक के हिंदी अर्थ सहित सुंदरकांड पीडीएफ फाइल को डाउनलोड कर सकते हैं।
एक पवित्र स्थान बनाएँ: सुंदरकांड को पढ़ने के लिए आपके पास एक पवित्र स्थान का होना जरूरी है, आप अपने घर के मंदिर में या किसी ऐसी जगह जो स्वच्छ और शांत हो आप वहां बैठ कर आराम से सुंदरकांड के पाठ कर सकते हैं। अगर आप अपने घर के मंदिर में सुंदर कांड के पाठ नियमित रूप से कर रहे हैं, तो ऐसे में आपके मंदिर में भगवान हनुमान जी की मूर्ति अवश्य होनी चाहिए, तथा सुंदरकांड पाठ करते समय भगवान हनुमान जी के आगे फूल, धूप और दीपक स्थापित करें।
खुद को तैयार करें: सुंदरकांड का पाठ शुरू करने से पहले, स्नान करें और अपने शरीर और मन को शुद्ध करने के लिए खुद को शुद्ध करें, स्वच्छ और शालीन वस्त्र धारण करें।
दैवीय आशीर्वाद का आह्वान करें: भगवान हनुमान के आशीर्वाद का आह्वान करके और उनका मार्गदर्शन प्राप्त करके सुंदरकांड के पाठ पढ़ना आरंभ करें, उनकी दिव्य ऊर्जा से जुड़ने के लिए हनुमान चालीसा या किसी अन्य हनुमान मंत्र का जाप करें।
पाठ: सुंदरकांड के श्लोकों का भक्ति और समझ के साथ पाठ करना शुरू करें, शब्दों का सही उच्चारण करने के लिए अपना समय लें और एक स्थिर लय बनाए रखें, यदि आप उच्चारण से अपरिचित हैं, तो आप ऑडियो रिकॉर्डिंग सुन सकते हैं या किसी जानकार व्यक्ति से मार्गदर्शन ले सकते हैं।
ध्यान बनाए रखें: पाठ करते समय छंदों के अर्थ और महत्व पर ध्यान बनाए रखने की कोशिश करें। भगवान हनुमान के वीर कृत्यों और पाठ में निहित आध्यात्मिक शिक्षाओं पर चिंतन करें। यह आपकी समझ और परमात्मा के साथ संबंध को गहरा करेगा।
भक्ति प्रसाद: पाठ के दौरान भगवान हनुमान जी को फूल, फल या अन्य पवित्र वस्तुएं चढ़ाएं, साथ ही पाठ शुरू करने से पहले हनुमान जी के आगे लड्डू या बर्फी का प्रसाद चढ़ाएं और समाप्ति के बाद उन्हें छोटे-छोटे बच्चों में बांट दें।
सुंदरकांड पढ़ने के नियम:
पवित्रता: सुंदरकांड पढ़ने से पहले शारीरिक और मानसिक शुद्धता बनाए रखें, पाठ से पहले या उसके दौरान मांसाहारी भोजन, शराब या किसी भी अशुद्ध पदार्थ का सेवन करने से बचें।
सम्मान: सुंदरकांड पाठ, भगवान हनुमान और स्वयं अभ्यास के प्रति अत्यंत सम्मान और श्रद्धा दिखाएं। सुंदरकांड को फर्श पर रखने या उसके साथ लापरवाही बरतने से बचें।
मौन और एकाग्रता: पाठ के दौरान मौन बनाए रखें और अनावश्यक विकर्षणों से बचें। अभ्यास के लिए एक शांत और केंद्रित वातावरण बनाएं।
ईमानदारी: सुंदरकांड के अभ्यास को ईमानदारी, विनम्रता और भक्ति के साथ करें। भगवान हनुमान और रामायण की शिक्षाओं के लिए एक वास्तविक प्रेम और सम्मान पैदा करें।
अहिंसा: अपने विचारों, शब्दों और कार्यों में अहिंसा और करुणा के सिद्धांतों को अपनाएं। किसी भी जीव को हानि पहुँचाने से बचें।
आस्था और विश्वास: सुंदरकांड की शक्ति और भगवान हनुमान की दिव्य कृपा में विश्वास रखें। विश्वास करें कि यह आपके जीवन में सकारात्मक प्रभाव ला सकता है।
याद रखें, उपरोक्त विधि और नियम सुंदरकांड के अभ्यास में आपकी सहायता करने के लिए दिशानिर्देश हैं। गहरी समझ और व्यक्तिगत सलाह के लिए किसी जानकार व्यक्ति या आध्यात्मिक गुरु से मार्गदर्शन लेना हमेशा फायदेमंद होता है।
संपूर्ण सुंदरकांड पाठ हिंदी में अर्थ सहित (PDF Free Download)
Name | संपूर्ण सुंदरकांड पाठ |
PDF Size | 254kb |
Total Page | 39 |
Language | हिंदी और संस्कृत |
PDF Download Available | Yes (हां) |
संपूर्ण सुंदरकांड चौपाई दोहा सहित उनके हिंदी अर्थ भी यहां आपके साथ साझा किए हैं। तो चलिए देर किस बात की लेकर प्रभु श्री राम का नाम करते हैं सुंदरकांड के पाठ का आरंभ:
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ॥
हिंदी अर्थ: शांतिपूर्ण, शाश्वत, अतुलनीय, पाप मुक्त, शांति का प्रतीक, और मोक्षरूप परम शांति देने वाले, पूरे विश्व के स्वामी, देवताओं के गुरु, मायावी मनुष्य, दयालु कृपा निधान, रघुवंश के अंदर सबसे श्रेष्ठ और सभी राजाओं के मुकुट के रत्न भगवान श्रीराम को मैं सादर प्रणाम करता हूं।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥
हिंदी अर्थ: हे रघुनाथ मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है मैं आपसे बिल्कुल सत्य कहता हूँ कि आप सबकी अंतरात्मा हो, हे रघुकुल श्रेष्ठ, कृपया आप मुझे बोझ से मुक्त भक्ति सेवा प्रदान करें, और मेरे इस मन को वासना तथा अन्य इच्छाओं की बुराइयों से मुक्त करें।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥
हिंदी अर्थ: वे अतुलनीय बल के धाम है, उनका शरीर सोने (स्वर्ण) के पर्वत के समान है, वे युवा और दैत्य के समान पतले हैं, वे बुद्धिमानों में सबसे ऊपर (अग्रणी) हैं, जो समस्त गुणों के कोष हैं, वानरों के स्वामी हैं तथा रघुनाथ के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान जी को मैं सादर प्रणाम करता हूं।
हनुमान जी का सीता माता को खोजने के लिए लंका प्रस्थान
जामवंतकेबचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंदमूलफलखाई॥
हिंदी अर्थ: हनुमान जी को जामवंत जी के सुनाएं वचन बहुत अच्छे लगे, यह सुनकर हनुमानजी का हृदय हर्ष से भर गया, उन्होंने कहा मेरे भाइयों आप सभी लोग कंद, मूल और फल खाकर, दुख सहकर, मेरी राह देखना।
जब लगि आवौं सीतहिदेखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउहरषि हियँ धरिरघुनाथा॥
हिंदी अर्थ: जब मैं माता सीता को देख लूंगा और वापस आऊंगा, तब कार्य सिद्ध होने पर मन को बड़ी प्रसन्नता होगी, इतना कहने के बाद सबको नमस्कार करके, श्री राम का मन में ध्यान धरकर, प्रसन्नता पूर्वक हनुमान जी लंका के लिए प्रस्थान कर गए।
हनुमान जी की लगाई छलांग से पहाड़ पाताल में पहुंचा
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीरसँभारी।
तरकेउ पवनतनय बलभारी॥
हिंदी अर्थ: समुंदर के बीच मैं एक सुंदर पहाड़ मौजूद था जिस पर हनुमान जी चढ़ गए, और पहाड़ पर चढ़कर भगवान श्री राम का स्मरण करने लगे, और बड़े पराक्रम के साथ उन्होंने श्री राम का नाम लेकर गर्जना की।
जेहिं गिरि चरन देइहनुमंता।
चलेउ सो गापाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एहीभाँति चलेउ हनुमाना॥
हिंदी अर्थ: कहां जाता है कि हनुमान जी ने जब पहाड़ से छलांग लगाई तो वह पहाड़ पाताल के अंदर चला गया, बिल्कुल उसी तरह जैसे प्रभु श्री राम का अमोघ बाण जाता है, इस प्रकार हनुमान जी उस पहाड़ से आगे की ओर चले।
मैनाक पर्वत की हनुमानजी से विनती
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
हिंदी अर्थ: समुंद्र के देव ने हनुमान जी को प्रभु श्री राम का दूत जानकर मैनाक पर्वत को आज्ञा दी और उसे कहा, हे मैनाक, तुम जाओ और इन्हें विश्राम कराके इनकी पूरी थकान मिटाओ।
सिन्धुवचन सुनी कान, तुरत उठेउ मैनाक तब।
कपिकहँ कीन्ह प्रणाम, बार बार कर जोरिकै॥
हिंदी अर्थ: समुद्र देव की बात सुनकर मैनाक पर्वत तुरंत हनुमान जी के पास पहुंचे और वहां उन्हें बार बार हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
दोहा:
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनुमोहिकहाँबिश्राम॥1॥
हनुमान जी ने उसे अपने हाथ से छूकर उनको प्रणाम किया और उससे कहा प्रभु रामचंद्र जी का कार्य किए बिना मुझे विश्राम कहां मिलेगा।
नाग माता सुरसा कौ भेज देवताओं ने ली हनुमान जी की परीक्षा
जातपवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँबलबुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥
हिंदी अर्थ: हनुमान जी को आगे बढ़ते देख देवताओं ने उनकी बल और बुद्धि के वैभव को जानने के लिए नाग माता सुरसा को भेजा, और नाग माता हनुमान जी से आकर यह कहने लगी
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कहपवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥
हिंदी अर्थ: देवताओं ने आज मुझे काफी अच्छा आहार दिया है, यह बात सुन हनुमान जी हंसने लगे और बोले, मैं प्रभु श्री रामचंद्र जी का कार्य करके लौट आओ और सीता माता की खबर रामचंद्र जी को सुना दूं।
तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्यकहउँमोहिजानदे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउहनुमाना॥
हिंदी अर्थ: उसके बाद हे माता, मैं वापस आकर आपके मुंह में प्रवेश करूंगा, अभी आप मुझे यहां से जाने की आज्ञा दें, मैं तुम्हें सत्य कहता हूं इसमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हनुमान जी ने काफी जतन किए पर सुरसा ने उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया, तब हनुमानजी ने कहा कि तू क्यों देरी कर रही है तुम मुझे नहीं खा सकती।
जोजन भरि तेहिंबदनुपसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुतबत्तिसभयऊ॥
हिंदी अर्थ: सुरसा ने अपना मुंह खोल उसे काफी ज्यादा दूरी में फैलाया, फिर हनुमान जी ने अपना शरीर 2 योजन विस्तार वाला किया, यानी कि काफी ज्यादा बड़ा किया, इसके बाद सुरसा ने अपना मुंह 16 योजन तक फैलाया, इसके पश्चात हनुमान जी ने अपना शरीर 32 योजन तक बड़ा कर लिया।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूपदेखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अतिलघुरूप पवनसुत लीन्हा॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहिसिरुनावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधिबलमरमु तोर मैं पावा॥
राम काजु सबु करिहहु तुम्हबलबुद्धिनिधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छलहनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बनसोभा।
गुंजत चंचरीकमधु लोभा॥
नाना तरु फलफूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मनभाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥
उमा न कछु कपिकै अधिकाई।
प्रभुप्रतापजो कालहि खाई॥
गिरिपरचढ़ि लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥
अतिउतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोट कर परम प्रकासा॥
कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥
बनबाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदासइन्हकीकथा कछु एक है कही।
रघुबीरसरतीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥
पुर रखवारे देखि बहु कपि मनकीन्हबिचार।
अतिलघुरूपधरों निसि नगर करौंपइसार॥
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरिनरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥
जानेहिनहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपिहनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥
पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्मबरदीन्हा।
चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अतिपुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥
तातस्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुखलवसतसंग ॥
हनुमानजी का लंका प्रवेश
प्रबिसि नगर कीजेसबकाजा।
हृदयँराखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनलसितलाई॥
गरुड़सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवाजाही॥
अतिलघुरूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरिभगवाना॥
सीता माता की खोज
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥
सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरिमंदिर तहँ भिन्न बनावा॥
रामायुध अंकितगृहसोभा बरनि न जाइ।
नवतुलसिका बृंद तहँ देखिहरषकपिराई॥
हनुमानजी की विभीषणसे भेंट
लंका निसिचरनिकर निवासा।
इहाँ कहाँसज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैंकपिलागा।
तेहींसमय बिभीषनु जागा॥
रामराम तेहिं सुमिरनकीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहिसन सठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ नकारजहानी॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठितहँआए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निजकथा बुझाई॥
की तुम्हहरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदयप्रीति अति होई॥
की तुम्हरामुदीनअनुरागी।
आयहुमोहि करन बड़भागी॥
तब हनुमंत कही सब राम कथानिजनाम।
सुनतजुगल तन पुलक मन मगनसुमिरिगुनग्राम॥
हनुमान जी और विभीषण का संवाद
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहिदरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभुकैरीती।
करहिं सदा सेवकपर प्रीति॥
कहहु कवन मैंपरम कुलीना।
कपिचंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥
हनुमानजी और विभीषण का संवाद
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत रामगुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्यबिश्रामा॥
पुनिसब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनुभ्राता।
देखी चहउँ जानकीमाता॥
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइरूपगयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ॥
हनुमान जी ने अशोकवन में सीता माता को देखा
देखि मनहि महुँ कीन्हप्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुनश्रेनी॥
निज पद नयन दिएँ मनरामपद कमल लीन।
परम दुखी भापवनसुत देखि जानकीदीन॥
अशोक वाटिका में रावण और सीता माता का संवाद
तरुपल्लव महँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संगनारि बहु किएँ बनावा॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेददेखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिंरघुबीरबानकी॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥
रावण और सीता जी का संवाद
सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिरकठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभुभुज करि कर सम दसकंधर॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥
चंद्रहास हरु मम परितापं।
रघुपतिबिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥
मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥
त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हितअपना॥
सपनें बानर लंकाजारी।
जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा।
मुंडितसिर खंडित भुज बीसा॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तबप्रभुसीता बोलि पठाई॥
यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसुता के चरनन्हि परीं॥
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥
सीता माता और त्रिजटा का संवाद
त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसह बिरहु अब नहिंसहि जाई॥
आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै कोश्रवन सूल सम बानी॥
त्रिजटा ने सीताजी को सान्तवना दी
सुनतबचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
हिमिलि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा॥
पावकमय ससि स्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका॥
नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता॥
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिकाडारितब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥
हनुमान सीताजी से मिले
तब देखीमुद्रिका मनोहर।
रामनाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥
जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥
राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥
नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें॥
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥
हनुमान ने सीताजी को आश्वासन दिया
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपिकेहिहेतु धरी निठुराई॥
सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥
बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥
हनुमान ने सीता माता को रामचन्द्रजी का सन्देश दिया
कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नवतरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जेहित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वाससम त्रिबिध समीरा॥
कहेहूतें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सोमनुसदारहततोहिपाहीं।
जानुप्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगनप्रेम तन सुधि नहिं तेही॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु ताई।रघुपतिप्रभु
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननीहृदयँधीरधरु जरे निसाचर जानु॥
सीता माता के मन में संदेह
जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरुथ कहँ जातुधान की॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरुधीरा।
कपिन्हसहित अइहहिं रघुबीरा॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥
मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा॥
सीता मनभरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥16॥
सिता जी ने हनुमान को आशीर्वाद दिया
मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना॥
अजरअमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥
बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
हनुमान जी ने अशोक वन में फल खाने की आज्ञा मांगी
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनुसुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुखमानहु मन माहीं॥
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकींजाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥
अशोक वाटिका विध्वंस और अक्षय कुमार का वध
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपातिमहाधुनिगर्जा॥
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरिधूरि।
कछु पुनि जाइपुकारेप्रभु मर्कट बल भूरि ॥18॥
हनुमान जी और मेघनाद का युद्ध
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥
मेघनाद हनुमान जी को बंदी बनाकर रावण की सभा में ले गया
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभुकारज लगि कपिहिं बँधावा॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद॥
हनुमान और रावण का संवाद
कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली॥
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥
हनुमानजी और रावण का संवाद
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परमप्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥
जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥
हनुमान का रावण को समझाना
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥
रामनाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥
रावण ने हनुमान जी की पूँछ जलाने का हुक्म दिया
जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥
मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहितबिभीषनु आए॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर॥
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥
राक्षसों ने हनुमान जी की पूँछ में आग लगा दी
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥
रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघुरूप तुरंता॥
निबुकि चढ़ेउ कप कनक अटारीं।
भईं सभीत निसाचर नारीं॥
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥
हनुमान जी ने लंका जलाई
देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥
हनुमान जी लंका से लौटने से पहले सीता जी से मिले
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ सम संकट भारी॥
तात सक्रसुत कथा सनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥
हनुमान जी का लंका से वापिस लौटना
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥
राका दिन पहूँचेउ हनुमन्ता।
धाय धाय कापी मिले तुरन्ता॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥
मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा॥
तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥
हनुमान जी सुग्रीव से मिले
जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥
हनुमान जी और सुग्रीव रामचन्द्र जी से मिले
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी॥)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥
हनुमान जी ने श्री राम को सीता जी का सन्देश दिया
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी॥
सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥
रामचन्द्र जी और हनुमान का संवाद
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता॥
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥
श्री राम हनुमान संवाद
बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥
सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा॥
कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना॥
साखामग कै बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥
श्री राम और हनुमानजी का संवाद
नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥
अब बिलंबु केह कारन कीजे।
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी॥
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥
श्री राम का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥
नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥
मंदोदरी और रावण का संवाद
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उवारा॥
जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥
रावण और मंदोदरी का संवाद
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा॥
जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माहीं॥
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
विभीषण का रावण को समझाना
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥
जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥
रावण को विभीषण का समझाना
तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥
विभीषण और माल्यावान का रावण को समझाना
माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवंत गह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार॥
विभीषण का अपमान
बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि॥
विभीषण का प्रभु श्रीराम की शरण के लिए प्रस्थान
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥
जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥
ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥
ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया॥
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना॥
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥
विभीषण को भगवान राम की शरण प्राप्ति
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥
जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥44॥
सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥
सघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता॥
नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा॥
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥45॥
तथापि हे प्रभु! हे भय और संकट मिटानेवाले! मै कानोंसे आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ। सो हे आर्ति (दुःख) हरण हारे! हे शरणागतोंको सुख देनेवाले प्रभु! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ॥45॥
अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी॥
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥
खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती॥
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥
भगवान श्री राम की महिमा
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥
ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥
अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥
प्रभु श्री रामचंद्र जी की महिमा
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही॥
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥
विभीषण की भगवान श्री राम से प्रार्थना
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥
अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥
जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥
समुद्र पार करने के लिए विचार
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई॥
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥
समुद्र पार करने के लिए विचार
सखा कही तुम्ह नीति उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए॥
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥
रावणदूत शुक का आना
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥
लक्ष्मण जी के पत्र को लेकर रावणदूत का लौटना
तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥
करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर॥
दूत का रावण को समझाना
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥
रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटैं लागे।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥
पूँछिहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥
रावणदूत शुक का रावण को समझाना
ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥
रावणदूत शुक का रावण को समझाना
राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥
तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥
रामानुज दीन्हीं यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
समुद्र पर श्री राम जी का क्रोध
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना॥
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥
समुद्र की श्री राम से विनती
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥
एहि सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥
देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।
।। जय सियाराम जय जय सियाराम ।।